Madhu varma

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लेखनी कविता - जाग-जाग सुकेशिनी री! -महादेवी वर्मा

जाग-जाग सुकेशिनी री! -महादेवी वर्मा


जाग-जाग सुकेशिनी री!

अनिल ने आ मृदुल हौले
 शिथिल वेणी-बन्धन खोले
 पर न तेरे पलक डोले
 बिखरती अलकें, झरे जाते
 सुमन, वरवेशिनी री!

छाँह में अस्तित्व खोये
 अश्रु से सब रंग धोये
 मन्दप्रभ दीपक सँजोये,
पंथ किसका देखती तू अलस
 स्वप्न - निमेषिनी री?

रजत - तारों घटा बुन बुन
 गगन के चिर दाग़ गिन-गिन
 श्रान्त जग के श्वास चुन-चुन
 सो गई क्या नींद की अज्ञात-
पथ निर्देशिनी री?

दिवस की पदचाप चंचल
 श्रान्ति में सुधि-सी मधुर चल
 आ रही है निकट प्रतिपल,
निमिष में होगा अरुण-जग
 ओ विराग-निवेशिनी री?

रूप-रेखा - उलझनों में
 कठिन सीमा - बन्धनों में
 जग बँधा निष्ठुर क्षणों में
 अश्रुमय कोमल कहाँ तू
 आ गई परदेशिनी री? 


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